मेरी नज़र में नवनीत शर्मा

अपने आस-पास, अपने माता-पिता, अपनी मिट्टी से गहरा लगाव, और उतना ही गहरा इस लगाव को अभिव्यक्त करने का हुनर है नवनीत शर्मा के पास। नवनीत का शिल्प अत्यंत प्रभावशाली है। नवनीत की कविताओं में जो धार है वही रवानगी इनकी ग़ज़लों में भी है। और कहने का अंदाज़ जैसा इनका है, किसी-किसी का होता है। मशहूर शायर साग़र ‘पालमपुरी’ के पुत्र होने के साथ- सुपरिचित ग़ज़लकार श्री द्विजेंद्र ‘द्विज’ के अनुज भी हैं नवनीत। इन दिनो नवनीत पत्रकारिता से जुड़े हैं लेकिन साहित्य से इनका लगाव आज भी बरकरार है। आपको नवनीत शर्मा की रचनाएं कैसी लगती हैं आप ज़रूर अपनी राय दें- प्रकाश बादल।

Sunday, February 3, 2013

तीन नई कविताएँ

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अंबर जब कविता लिखता है
हर तबका नहीं सुनता
जब कविता लिखता है अंबर
पर सुनती हैं कच्‍चे घरों की स्‍लेटपोश छतें
सर्द मौसम में अंबर की भीगी हुई कविता
और मिलाती हैं सुर/
सुनते हैं इसे
फुटपाथ पर कंबल में लिपटे जिस्‍म
दांत किटकिटाते
और कुछ ऐसा कहते हुए
जो भाषा के लायक नहीं होता
अजेय भाई के केलांग के किसी गांव में
जब बर्फ लिख रहा होता है अंबर
तो उसे सुन ही नहीं, जी रहा होता है
उड़ान के इंतजार में कोई मरीज
अंबर की कविता भी अंबर जैसी
खत्‍म होने पर भी रहता है असर।
एक असर यह भी
कि करते हैं दुआ कबायली
सर्दियों में सेब के पौधे में क्‍यों तबदील नहीं हो जाता आदमी
जिंदगी ही दें भरपूर 'चिलिंग आवर'
अंबर जब कविता लिखता है
मनाली बस की किसी सीट पर
कंबल ओढ़
जज्‍बों में डूबा रहता है कोई हनीमून कपल
सब सुनते हैं अंबर की कविता
सबका अपना है अनुभव
कोई अच्‍छी तो कोई बुरी कहता है
लेकिन एक तबका है ऐसा अभागा
जिस तक नहीं पहुंचती अंबर की कविता
उसकी
कारों के दरवाजे
कंकरीट की छतें
लैपटॉप की स्‍क्रीन
और एयरकंडीशंड कमरे
सब मिल कर उससे छीन लेते हैं
वही,
अंबर की कविता।

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जब तक रहेंगे पेड़

दाना चुगने में थकी चिडि़या
आती रहेगी
अपनी चोंच से छोटे-छोटे मुंहों में
जीवन धर कर लौटती रहेगी
परवाज पर
तने सहते रहेंगे चाकुओं से
उन पर उकेरे जाते प्रेमियों के नाम का दर्द
हवाओं के तेवरों के मुताबिक
चोटियां हिलती रहेंगी
हर मौसम में
शाखों पर आते रहेंगे फूल
शाम को लंबी सुनहरी अंगुलियों से
पेड़ों का सिर सहला कर
लौटती रहेगी धूप
बांधते रहेंगे कुछ लोग पेड़ों को धागे
सब कुछ करते रहेंगे पेड़
यह जानते हुए भी कि
उन्‍हें घूर रही हैं कुछ कुल्‍हाडि़यां
पेड़ जानता है सड़क को जब सीधे होना होता है
उसकी नजरें टेढ़ी हो जाती हैं
फिर भी सब कुछ करते रहेंगे
जब रहेंगे पेड़
मगर कौन बताए
कब तक रहेंगे पेड़


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ढूंढ़ना मुझे

ढूंढ़ना मुझे
बावड़ी के किनारे रखे पत्‍थरों के नीचे
पीपल को बांधी गई डोर से कुछ दूर
खिलते गेंदे की कली में
झरने से फूटते पानी के ठीक पीछे
या उस कांटेदार पौधे में जिसका दूध
हाथों-पैरों के मस्‍से ठीक करता है
ढूंढ़ना मुझे
पहाड़ी पर खड़े हो कर गाए
किसी गीत के बोल के अंतिम हिस्‍से में
मैं मिलूंगा तुम्‍हें
अधूरे छूटे किसी लोकगीत की संभावना में
जंतर मंतर पर भी रहूंगा मैं
उन गुहारों में जो कुछ बदलना चाहती हैं
मुझे पाना उन चीखों में
जो बहुत बार अनसुनी रह जाती हैं
किसी संकरे पुल पर
पार से किसी के इंतजार में
शांत बैठा दिख सकूंगा मैं
जरूरी हो तो मुझे खोजना
पहाड़ काटने में मसरूफ
किसी जेसीबी के ब्‍लेड को टेढ़ा कर चुके पत्‍थर में
जो इस बार नहीं है कहीं
बस उसी सबके आसपास देखना मुझे।

Sunday, October 4, 2009

..हर मकां भी तो घर नहीं होता

यह जो बस्ती में डर नहीं होता
सबका सजदे में सर नहीं होता

तेरे दिल में अगर नहीं होता
मैं भी तेरी डगर नहीं होता

रेत के घर पहाड़ की दस्तक
वाक़िया ये ख़बर नही होता

ख़ुदपरस्ती ये आदतों का लिहाफ़
ख़्वाब तो हैं गजर नहीं होता

मंज़िलें जिनको रोक लेती हैं
उनका कोई सफ़र नहीं होता

पूछ उससे उड़ान का मतलब
जिस परिंदे का पर नहीं होता

आरज़ू घर की पालिए लेकिन
हर मकाँ भी तो घर नहीं होता

तू मिला है मगर तू ग़ायब है
ऐसा होना बसर नहीं होता

इत्तिफ़ाक़न जो शे`र हो आया
क्या न होता अगर नहीं होता.

Wednesday, May 20, 2009

तुम उधर मत जाना


पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के टांडा मैडिकल कॉलेज में 19 वर्षीय एमबीबीस करने आए छात्र अमनकाचरू को रैगिंग के दानव ने लील दिया उसी विचलित करने वाली दुर्घटना के बाद लिखी गई नवनीत भाई की यह कविता!


अमन काचरू 
(क्षमायाचना के साथ अमन काचरू के लिए)
राजधानी के अपराध आंकड़ों को छोड़
जब चला एक शांत कस्‍बे के लिए

निश्चिंत था मैं।
ठंडी हवाओं ने बताया
यहां सुकुन है,
यहां के लोगों में है कुछ ऐसा कि
देवता का जिक्र आता ही है।
यहां वातावरण में गूंजती है
इनसान को मौत के मुंह से खींच लाने की कसम
भगवान तैयार हो रहे हैं यहां
ग्रामीण चाय की दुकानों पर बतियाते हैं।
लेकिन धूपभरी एक दोपहर
मुझे बताया एक बरगद ने
कि यह जो बस्‍ती है
वहां दिन रात से उतना ही अलग है
जितनी रात होती है अलग दिन से ।
दिन में भयावह दिख़ने वाली खड्डें
रात को तब रहमदिल बिस्‍तर बन जाती हैं
जब यह भगवान बनाने वाली इमारत राक्षसों के अटहास से
गूंजने लगती है।
दिन के जितने हैं मासूम चेहरे
रात को उनके दो दांत बाहर आ जाते हैं
वे डराते हैं, धमकाते हैं,नोचते हैं और लूटते हैं
मुझे नहीं था यकीन
कि मां चामुंडा से मिल कर आती
बनेर खड़ड एक रात मेरा बिस्‍तर बन जाएगी
जब मैने देवताओं को राक्षस बनते देखा था।
मैंने मदद के लिए आवाज लगाई
पर किसी ने मेरे मुंह पर
प्राचार्य दफ्तर का पेपरवेट उठा कर दे मारा
मेरी जीभ छिल गई
मैं चुप हो गया।
मेरे बाजू अभी सलामत थे
मैने दूर देखा 'राघवन कमेटी' की सिफारिश
धौलाधार की चोटी पर चमक रही है
मैने हाथ बढ़ाया
लेकिन इससे पहले ही चार हंसते हुए चेहरों ने
उसे फाड़ कर फेंक दिया।
मैने सोए हुए चौकीदार को जगाया
लेकिन उसके खर्राटों ने बताया
मेरा वार्डन भी सोया हुआ है।
मैंने कागजों से कहा अपना दुख
आकृत्तियां बनाईं,
लिखा, उकेरा
सब कुछ कि मैं कितना बोझ उठाकर कर घिसट रहा हूं।
किसी ने मुझे नहीं देखा
कुछ वर्दियां चमकती रही
कुछ हूटर बजते रहे
जूनियरों के सिर मुंडते रहे
वे नमस्‍ते की मुद्रा में चलते रहे
कुछ लैब कोट खून से सनते रहे।

पर उस रात तो हद ही हो गई
उस रात मेरे सपने तोड़े गए
उस रात मेरा सिर फोड़ा गया
उस रात मुझे पूरे का पूरा तोड़ा गया
और अब मैं कहीं नहीं हूं।

तुम देखो कि
मैं अपने शहर में क्राइम का शिकार नहीं हुआ
मुझे दिल्‍ली की ब्‍लू लाइन ने नहीं रौंदा
मुझे गुड़गांव पुलिस ने फर्जी एनकाउंटर में नहीं सुलाया
यह जो घर तुम्‍हारा है
मुझे यहां हरियाली ने मारा है
सुनो,
तुम उधर मत जाना।

गांव में हल चला लेना
आटर्स पढ़ लेना
मां-बाप के सपने तोड़ देना
नालायक ही रह जाना
दुकानदारी चला लेना
कुछ भी करना पर
यूं मत मरना
यह मरना नहीं
मारा जाना है।
क्‍योकि मैं भी नहीं चाहता था मरना

यह सब मुझे अमन काचरू ने बताया
जब जाने के कई दिन बाद तक
वह मुझसे बतियाया।

Wednesday, March 25, 2009

....खुश्बुओं का डेरा है।

उनका जो ख़ुश्बुओं का डेरा है।

हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है।


सच के क़स्बे का जो अँधेरा है,

झूठ के शहर का सवेरा है।


मैं सिकंदर हूँ एक वक़्फ़े का,

तू मुक़द्दर है वक्त तेरा है।


दूर होकर भी पास है कितना,

जिसकी पलकों में अश्क मेरा है।


जो तुझे तुझ से छीनने आया,

यार मेरा रक़ीब तेरा है।


मैं चमकता हूँ उसके चेहरे पर,

चाँद पर दाग़ का बसेरा है।

Tuesday, March 17, 2009

ख़्वाब कुछ बेहतरीन......

वहम जब भी यक़ीन हो जाएँ |

हौसले सब ज़मीन हो जाएँ ||


ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ,

सच अगर बदतरीन हो जाएँ |


ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ,

हम कहाँ तक महीन हो जाएँ |


ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं,

लोग जब भी मशीन हो जाएँ |


आपको आप ही उठाएँगे,

चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ |

Monday, March 2, 2009

---हम अपना अम्बर ढूँढ रहे हैं

बेहतर दुनिया, अच्‍छी बातें, पागल शायर ढूँढ रहे हैं।
ज़हरीली बस्‍ती में यारो, हम अमृतसर ढूँढ रहे हैं।

ख़ालिस उल्‍फ़त,प्‍यार- महब्‍बत, ख़्वाब यक़ीं के हैं आंखों में,
दिल हज़रत के भी क्‍या कहने ! बीता मंज़र ढूँढ रहे हैं।

सीख ही लेंगे साबुत रहना अपनी आग में जल कर भी हम,
दर्द को किसने देखा पहले तो अपना सर ढूँढ रहे हैं।

ऐंठे जाते-जाते ही तो ख़त्म हुआ है आँख का पानी'
अब जब शहर ने पीकर छोड़ा सब अपना घर ढूँढ रहे हैं।

अपनी-अपनी जिनकी ज़रूरत, अपनी उनकी कोशिश भी है,
झूठे, ख़ंजर ढूंढ़ रहे हैं , सच वाले , दर ढूँढ रहे हैं

क्या जाने ये वक़्त किसे कब क्या मंज़र दिखला देता है,
बावड़ियों को पीने वाले मिनरल वाटर ढूँढ रहे हैं।

याद तुम्हें जब करता हूँ तो समझाते हैं मुझको पर्वत,
‘सदियों से सब सह कर भी हम अपना अंबर ढूँढ रहे हैं’

Friday, February 6, 2009

तुम्‍हारे शहर की बस

यह बस तुम्‍हारे शहर से आई है

ड्राइवर के माथे पर

पहुँचने की खुशी

थके हुए इंजन की आवाज

धूल से आंख मलते

खिड़कियों के शीशे

सबने यही कहा

दूर बहुत ही दूर है तुम्‍हारा शहर

यह बस देखती है

तुम्‍हारे शहर का सवेरा

मेरे गाँव की साँझ

सवाल पूछता है मन

क्‍या तुम्‍हारा शहर भी उदास होता है

जब कभी पहुँचती है

मेरे गाँव का सवेरा लेकर

तुम्‍हारे शहर की शाम में कोई बस

थकी-माँदी।

(भाई सतपाल ख़्याल के आग्रह पर यह कविता यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। यह कविता यूँ भी नवनीत शर्मा की बेहतरीन कविताओं में एक है। कई वर्ष पहले लिखी यह कविता आज भी कितनी ताज़ा है, आप पढ़कर ख़ुद ही अंदाज़ा लगाईए : प्रकाश बादल)