मेरी नज़र में नवनीत शर्मा

अपने आस-पास, अपने माता-पिता, अपनी मिट्टी से गहरा लगाव, और उतना ही गहरा इस लगाव को अभिव्यक्त करने का हुनर है नवनीत शर्मा के पास। नवनीत का शिल्प अत्यंत प्रभावशाली है। नवनीत की कविताओं में जो धार है वही रवानगी इनकी ग़ज़लों में भी है। और कहने का अंदाज़ जैसा इनका है, किसी-किसी का होता है। मशहूर शायर साग़र ‘पालमपुरी’ के पुत्र होने के साथ- सुपरिचित ग़ज़लकार श्री द्विजेंद्र ‘द्विज’ के अनुज भी हैं नवनीत। इन दिनो नवनीत पत्रकारिता से जुड़े हैं लेकिन साहित्य से इनका लगाव आज भी बरकरार है। आपको नवनीत शर्मा की रचनाएं कैसी लगती हैं आप ज़रूर अपनी राय दें- प्रकाश बादल।

Wednesday, March 25, 2009

....खुश्बुओं का डेरा है।

उनका जो ख़ुश्बुओं का डेरा है।

हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है।


सच के क़स्बे का जो अँधेरा है,

झूठ के शहर का सवेरा है।


मैं सिकंदर हूँ एक वक़्फ़े का,

तू मुक़द्दर है वक्त तेरा है।


दूर होकर भी पास है कितना,

जिसकी पलकों में अश्क मेरा है।


जो तुझे तुझ से छीनने आया,

यार मेरा रक़ीब तेरा है।


मैं चमकता हूँ उसके चेहरे पर,

चाँद पर दाग़ का बसेरा है।

Tuesday, March 17, 2009

ख़्वाब कुछ बेहतरीन......

वहम जब भी यक़ीन हो जाएँ |

हौसले सब ज़मीन हो जाएँ ||


ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ,

सच अगर बदतरीन हो जाएँ |


ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ,

हम कहाँ तक महीन हो जाएँ |


ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं,

लोग जब भी मशीन हो जाएँ |


आपको आप ही उठाएँगे,

चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ |

Monday, March 2, 2009

---हम अपना अम्बर ढूँढ रहे हैं

बेहतर दुनिया, अच्‍छी बातें, पागल शायर ढूँढ रहे हैं।
ज़हरीली बस्‍ती में यारो, हम अमृतसर ढूँढ रहे हैं।

ख़ालिस उल्‍फ़त,प्‍यार- महब्‍बत, ख़्वाब यक़ीं के हैं आंखों में,
दिल हज़रत के भी क्‍या कहने ! बीता मंज़र ढूँढ रहे हैं।

सीख ही लेंगे साबुत रहना अपनी आग में जल कर भी हम,
दर्द को किसने देखा पहले तो अपना सर ढूँढ रहे हैं।

ऐंठे जाते-जाते ही तो ख़त्म हुआ है आँख का पानी'
अब जब शहर ने पीकर छोड़ा सब अपना घर ढूँढ रहे हैं।

अपनी-अपनी जिनकी ज़रूरत, अपनी उनकी कोशिश भी है,
झूठे, ख़ंजर ढूंढ़ रहे हैं , सच वाले , दर ढूँढ रहे हैं

क्या जाने ये वक़्त किसे कब क्या मंज़र दिखला देता है,
बावड़ियों को पीने वाले मिनरल वाटर ढूँढ रहे हैं।

याद तुम्हें जब करता हूँ तो समझाते हैं मुझको पर्वत,
‘सदियों से सब सह कर भी हम अपना अंबर ढूँढ रहे हैं’