1
अब पसर आए हैं रिश्तों पे कुहासे कितने।
अब जो ग़ुर्बत में है नानी तो नवासे कितने।
चोट खाए हुए लम्हों का सितम है कि उसे,
रूह के चेहरे पे दिखते हैं मुहाँसे कितने।
सच के क़स्बे पे मियाँ झूठ की है सरदारी,
अब अटकते हैं लबों पर ही ख़ुलासे कितने।
थे बहुत ख़ास जो सर तान के चलते थे यहाँ,
अब इसी शहर में वाक़िफ़ हैं अना से कितने।
अब भी अंदर है कोई शय जो धड़कती है मियाँ,
वरना बाज़ार में बिकते हैं दिलासे कितने।
2
मुझे उम्मीद थी भेजोगे नग़्मगी फिर से।
तुम्हारे शहर से लौटी है ख़ामुशी फिर से।
यहाँ दरख़्तों के सीने पे नाम खुदते हैं।
मगर है दूर वो दस्तूर-ए-बंदगी फिर से।
गड़ी है ज़िन्दगी दिल में कँटीली यादों-सी।
ज़रा निजात मिले, तो हो ज़िंदगी फिर से।
बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो,
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से।
सनम तो हो गया तब्दील एक पत्थर में,
मेरे नसीब में आई है बंदगी फिर से।
मुझे भुलाने चले थे वो भूल बैठे हैं,
उन्हीं के दर पे मैं पत्थर हूँ दायमी फिर से।
मेरी नज़र में नवनीत शर्मा
अपने आस-पास, अपने माता-पिता, अपनी मिट्टी से गहरा लगाव, और उतना ही गहरा इस लगाव को अभिव्यक्त करने का हुनर है नवनीत शर्मा के पास। नवनीत का शिल्प अत्यंत प्रभावशाली है। नवनीत की कविताओं में जो धार है वही रवानगी इनकी ग़ज़लों में भी है। और कहने का अंदाज़ जैसा इनका है, किसी-किसी का होता है। मशहूर शायर साग़र ‘पालमपुरी’ के पुत्र होने के साथ- सुपरिचित ग़ज़लकार श्री द्विजेंद्र ‘द्विज’ के अनुज भी हैं नवनीत। इन दिनो नवनीत पत्रकारिता से जुड़े हैं लेकिन साहित्य से इनका लगाव आज भी बरकरार है। आपको नवनीत शर्मा की रचनाएं कैसी लगती हैं आप ज़रूर अपनी राय दें- प्रकाश बादल।
6 comments:
बहोत ही खुबसूरत लिखा है आपने बेहद उम्दा ... ढेरो बधाई स्वीकारें....
अर्श
बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो,
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से।
दोनों गजले बहुत अच्छी हैं। बधाई
अच्छी गजलें हैं।
अब भी अंदर है कोई शय जो धड़कती है मियाँ,
वरना बाज़ार में बिकते हैं दिलासे कितने।
सनम तो हो गया तब्दील एक पत्थर में,
मेरे नसीब में आई है बंदगी फिर से।
प्रकाशजी आपने सच कहा नवनीत जी को पढ़ना इक अनुभव से गुजरने जैसा है...उनमें उस्ताद शायरों वाला तेवर है जो अलग से नजर आता है...ख्याल की पुख्तगी उनकी हर ग़ज़ल में दिखाई देती है...मैं उनमें इक मशहूर और मकबूल शायर बनने के सारे गुन देख पा रहा हूँ...इश्वर उनसे ऐसी लाजवाब ग़ज़लें लिखवाता रहे और हम पढ़ते रहें...हमेशा...
नीरज
dono hi ghazalein bahut achhi lagi... :))
"सच के क़स्बे पे मियाँ झूठ की है सरदारी,
अब अटकते हैं लबों पर ही ख़ुलासे कितने।"
"अब भी अंदर है कोई शय जो धड़कती है मियाँ,
वरना बाज़ार में बिकते हैं दिलासे कितने।"
"बची जो नफ़रतों की तेज़ धूप से यारो,
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से।"
:)
Bhai arsh, janab-e-Ashok Madhup ji, Dear Sachin, Sangeeta ji and Neeraj Bhai Sahab, Aap Sab ka pyaar isi tarah milta rahe to maza aa jaaye. Please keep in touch. Bhai aur Dost Prakash ka phir thanks.
Navneet.
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