1.
सफ़ेद रूमाल के कोने पर
अंग्रेजी में बुने गए हैं अक्षर
शक भी नहीं होता कि
उसे धुंधलाएगी
समय की धूल
चिढ़ाएंगी सफ़ेदी में दुबकी शर्तें
रूमाल अब कुछ नहीं कहते
गैस स्टोव साफ़ करते-करते
घिसने से बच जाते हैं शब्द के जो हिस्से
वे कुछ सालों बाद लोकगीतों में मिलते हैं।
2.
पति के घर लौटने से पहले
बच्चों को बहला-फुसला कर
चिट्ठियों के महीन-मुलायम
ख़ुशबूदार काग़ज़ों का बंडल
कूड़ेदान में फेंक कर आई माँ
बहुत उदास है।
3.
डूब रहे हैं स्वेटर बुनते दिल
सिलाइयों पर निगाहों की ज़ंग
और गहरा गई है
स्कूली जमातन के
ससुराली गाँव की ढाँक
जेब में अपनी माचिस का सपना पाले
घिस रहे शहर में पैर
अब समझे हैं
कैसे बन जाती है रूमालों की पोंछन
महीन कागजों की कुल्हाडि़याँ
4.
दरख़्त कट गए
तुम चुप रहे
छतों से झाँकने लगा आकाश
तुम सहज थे
पानी जुराबों से होता
टखनों तक पसर गया
तुम कुछ नहीं बोले
तुम्हें रूमाल का आसरा था
क्यों इतना भी नहीं सोचते
रूमाल अब आँखें नहीं पोंछते।
4 comments:
नवनीत जी को पढ़ते हुए एक सुखद एहसास होता है...आने वाली नस्ल के पास बेहद खूबसूरत शब्द और भावः हैं....ऐसे नौजवानों के होते हुए...शायरी और कविता हमेशा जिन्दा रहेगी...बेहतरीन नज्में हैं सारी की सारी...और वो भी इतनी गहराई लिए हुए...कमाल है...वाह.
नीरज
नवनीत जी,बहुत बढिया!! रचनाऒ में छुपा एहसास बहुत गहरे तक मार करता है।बहुत सुन्दर लिखा है।बधाई स्वीकारें।
बहुत अच्छा िलखा है आपने । िवचार और भाव का श्रेष्ठ समन्वय है । बधाई । -
http://www.ashokvichar.blogspot.com
kafi gahri baat kahi hai
kuch samajh nahi aayi
par kuch aa bhi gayi hain..
thanks..
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