मेरी नज़र में नवनीत शर्मा

अपने आस-पास, अपने माता-पिता, अपनी मिट्टी से गहरा लगाव, और उतना ही गहरा इस लगाव को अभिव्यक्त करने का हुनर है नवनीत शर्मा के पास। नवनीत का शिल्प अत्यंत प्रभावशाली है। नवनीत की कविताओं में जो धार है वही रवानगी इनकी ग़ज़लों में भी है। और कहने का अंदाज़ जैसा इनका है, किसी-किसी का होता है। मशहूर शायर साग़र ‘पालमपुरी’ के पुत्र होने के साथ- सुपरिचित ग़ज़लकार श्री द्विजेंद्र ‘द्विज’ के अनुज भी हैं नवनीत। इन दिनो नवनीत पत्रकारिता से जुड़े हैं लेकिन साहित्य से इनका लगाव आज भी बरकरार है। आपको नवनीत शर्मा की रचनाएं कैसी लगती हैं आप ज़रूर अपनी राय दें- प्रकाश बादल।

Thursday, January 22, 2009

ऐसे ख़्याल और ऐसा शब्दकोष अगर किसी के पास हो तो फिर भला कोई किसी का कायल क्यों न हो। नवनीत भाई की ये ग़ज़ल ऐसा ही साबित कर रही है। वाह! नवनीत भाई वाह। ज़ाहिर हैं पाठक मेरे विचारों से सहमत (प्रकाश बादल)


चाय की दुकानें भी शराबों के लिए है

ग़ज़ल


ख्वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं

हम रोज-ए-अज़ल से ही अज़ाबों के लिए हैं


चलते भी रहें और मंज़िल नज़र आए

हम अपने ही अंदर के सराबों के लिए हैं


संसद में डटे लोग सवालों के लिए हैं

खेतों में जुटे लोग जवाबों के लिए हैं


बाज़ार ने तहज़ीब को निगला है कुछ ऐसे

चाय की दुकानें भी शराबों के लिए हैं


क्या जाने कहाँ कौन सी सूरत नज़र आए

इस दिल के कई चेहरे नकाबों के लिए हैं


खुशबू ही कहाँ ज़िक्र भी गुम हो गया तेरा

सब याद के पिंजर तो उकाबों के लिए हैं


अब आ गया रास हमको भी सन्नाटे में जीना

हम याद के वीरान खराबों के लिए हैं।

रोज़-ए-अज़ल : पहला दिन, अज़ाब : परेशानी, सराब : रेगिस्तान, खराब : खंडहर

Tuesday, January 13, 2009

ग़ज़ल

वहम जब भी यक़ीन हो जाएँ।

हौसले सब ज़मीन हो जाएँ।


ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ,

सच अगर बदतरीन हो जाएँ।


ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ,

हम कहाँ तक महीन हो जाएँ।


ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं,

लोग जब भी मशीन हो जाएँ।


आपको आप ही उठाएँगे,

चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ।

Sunday, January 4, 2009

पिता जी - शब्दांजलि

1

घरों में बलगती छाती का होना

दीवारों का चौकस

छत का मजबूत होना है।

वही झेलती है

तीरों की धूप

कुरलाणियों की बरखा ।


दुख बस यही कि खिड़कियां

बहुत जल्‍द आसमान

हो जाना चाहती हैं।

2

वक्‍त की चोट से हिले हैं कब्‍जे

खिड़कियों के

खुली हवा का चाव पूरा हो गया

घर मगर कितना अधूरा हो गया

अब छत नहीं मिलती

शब्‍द जहां उतार देते थे रोगन

भाव भी

वह बिस्‍तर खाली है।


3

खूब लड़ी वह जेब

सरसों के तेल की धार से

कोयले की बोरी ले कर

लड़ते रहे वे हाथ

जाड़ों से ।

पिता सोए

बड़के की फीस के हिज्‍जे गुनते

मंझले की मंजिल पर

नींद में बुड़बुड़ाते

और सुबह से भी पहले जाग उठते

छोटा अभी बहुत ही छोटा है

बड़ा होगा न जाने कब

4

डायरियों पर आकृतियां बनाते हैं बच्‍चे

पहनते हैं दादा की ऐनक

जिससे दिखते थे

उर्दू के कुछ मीठे शब्‍द

बच्‍चों को आरता है चक्‍कर

शीशम के बने टेबल लैंप से खलते हैं जगाना-बुझाना

छुटकी के बस्‍ते में पड़े हैं चायनीज पैन के टुकड़े

अब रोकता नहीं कोई

अब टोकता नहीं कोई

5

पिता

उसकी जेब में पड़ी कलम

के कारण विनम्र हो गए हैं उसके शब्‍द

खत्‍म होने को डराते

चावल के पेड़ू ने कर दिया है उसे

सावधान

उदासियों में

बदहवासियों मेंवह सीख गया है बनना

अपना बाप

अपने आप

6

कितने ही साल से खामोश है

चिटिठयों पर

पुतने वाली गोंद

कोई नहीं पूछता

कविता का मिजाज

पिछवाड़े पड़ा बालन

उसकी खपचियां

भूल गई हैं ड्रिफ्टवुड से अपना रिश्‍ता

कोई नहीं कहता

हरियाली से बचना

फूल की तारीफ के बाद

नहीं रुकना फूल के पास

नहाते हुए लगाना नाभी पर तेल