ऐसे ख़्याल और ऐसा शब्दकोष अगर किसी के पास हो तो फिर भला कोई किसी का कायल क्यों न हो। नवनीत भाई की ये ग़ज़ल ऐसा ही साबित कर रही है। वाह! नवनीत भाई वाह। ज़ाहिर हैं पाठक मेरे विचारों से सहमत (प्रकाश बादल)
चाय की दुकानें भी शराबों के लिए है
ग़ज़ल
ख्वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं
हम रोज-ए-अज़ल से ही अज़ाबों के लिए हैं
चलते भी रहें और मंज़िल नज़र आए
हम अपने ही अंदर के सराबों के लिए हैं
संसद में डटे लोग सवालों के लिए हैं
खेतों में जुटे लोग जवाबों के लिए हैं
बाज़ार ने तहज़ीब को निगला है कुछ ऐसे
चाय की दुकानें भी शराबों के लिए हैं
क्या जाने कहाँ कौन सी सूरत नज़र आए
इस दिल के कई चेहरे नकाबों के लिए हैं
खुशबू ही कहाँ ज़िक्र भी गुम हो गया तेरा
सब याद के पिंजर तो उकाबों के लिए हैं
अब आ गया रास हमको भी सन्नाटे में जीना
हम याद के वीरान खराबों के लिए हैं।
रोज़-ए-अज़ल : पहला दिन, अज़ाब : परेशानी, सराब : रेगिस्तान, खराब : खंडहर