मेरी नज़र में नवनीत शर्मा
Sunday, October 4, 2009
..हर मकां भी तो घर नहीं होता
सबका सजदे में सर नहीं होता
तेरे दिल में अगर नहीं होता
मैं भी तेरी डगर नहीं होता
रेत के घर पहाड़ की दस्तक
वाक़िया ये ख़बर नही होता
ख़ुदपरस्ती ये आदतों का लिहाफ़
ख़्वाब तो हैं गजर नहीं होता
मंज़िलें जिनको रोक लेती हैं
उनका कोई सफ़र नहीं होता
पूछ उससे उड़ान का मतलब
जिस परिंदे का पर नहीं होता
आरज़ू घर की पालिए लेकिन
हर मकाँ भी तो घर नहीं होता
तू मिला है मगर तू ग़ायब है
ऐसा होना बसर नहीं होता
इत्तिफ़ाक़न जो शे`र हो आया
क्या न होता अगर नहीं होता.
Wednesday, May 20, 2009
तुम उधर मत जाना
पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के टांडा मैडिकल कॉलेज में 19 वर्षीय एमबीबीस करने आए छात्र अमनकाचरू को रैगिंग के दानव ने लील दिया उसी विचलित करने वाली दुर्घटना के बाद लिखी गई नवनीत भाई की यह कविता! |
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अमन काचरू |
राजधानी के अपराध आंकड़ों को छोड़
जब चला एक शांत कस्बे के लिए
निश्चिंत था मैं।
ठंडी हवाओं ने बताया
यहां सुकुन है,
यहां के लोगों में है कुछ ऐसा कि
देवता का जिक्र आता ही है।
यहां वातावरण में गूंजती है
इनसान को मौत के मुंह से खींच लाने की कसम
भगवान तैयार हो रहे हैं यहां
ग्रामीण चाय की दुकानों पर बतियाते हैं।
लेकिन धूपभरी एक दोपहर
मुझे बताया एक बरगद ने
कि यह जो बस्ती है
वहां दिन रात से उतना ही अलग है
जितनी रात होती है अलग दिन से ।
दिन में भयावह दिख़ने वाली खड्डें
रात को तब रहमदिल बिस्तर बन जाती हैं
जब यह भगवान बनाने वाली इमारत राक्षसों के अटहास से
गूंजने लगती है।
दिन के जितने हैं मासूम चेहरे
रात को उनके दो दांत बाहर आ जाते हैं
वे डराते हैं, धमकाते हैं,नोचते हैं और लूटते हैं
मुझे नहीं था यकीन
कि मां चामुंडा से मिल कर आती
बनेर खड़ड एक रात मेरा बिस्तर बन जाएगी
जब मैने देवताओं को राक्षस बनते देखा था।
मैंने मदद के लिए आवाज लगाई
पर किसी ने मेरे मुंह पर
प्राचार्य दफ्तर का पेपरवेट उठा कर दे मारा
मेरी जीभ छिल गई
मैं चुप हो गया।
मेरे बाजू अभी सलामत थे
मैने दूर देखा 'राघवन कमेटी' की सिफारिश
धौलाधार की चोटी पर चमक रही है
मैने हाथ बढ़ाया
लेकिन इससे पहले ही चार हंसते हुए चेहरों ने
उसे फाड़ कर फेंक दिया।
मैने सोए हुए चौकीदार को जगाया
लेकिन उसके खर्राटों ने बताया
मेरा वार्डन भी सोया हुआ है।
मैंने कागजों से कहा अपना दुख
आकृत्तियां बनाईं,
लिखा, उकेरा
सब कुछ कि मैं कितना बोझ उठाकर कर घिसट रहा हूं।
किसी ने मुझे नहीं देखा
कुछ वर्दियां चमकती रही
कुछ हूटर बजते रहे
जूनियरों के सिर मुंडते रहे
वे नमस्ते की मुद्रा में चलते रहे
कुछ लैब कोट खून से सनते रहे।
पर उस रात तो हद ही हो गई
उस रात मेरे सपने तोड़े गए
उस रात मेरा सिर फोड़ा गया
उस रात मुझे पूरे का पूरा तोड़ा गया
और अब मैं कहीं नहीं हूं।
तुम देखो कि
मैं अपने शहर में क्राइम का शिकार नहीं हुआ
मुझे दिल्ली की ब्लू लाइन ने नहीं रौंदा
मुझे गुड़गांव पुलिस ने फर्जी एनकाउंटर में नहीं सुलाया
यह जो घर तुम्हारा है
मुझे यहां हरियाली ने मारा है
सुनो,
तुम उधर मत जाना।
गांव में हल चला लेना
आटर्स पढ़ लेना
मां-बाप के सपने तोड़ देना
नालायक ही रह जाना
दुकानदारी चला लेना
कुछ भी करना पर
यूं मत मरना
यह मरना नहीं
मारा जाना है।
क्योकि मैं भी नहीं चाहता था मरना
यह सब मुझे अमन काचरू ने बताया
जब जाने के कई दिन बाद तक
वह मुझसे बतियाया।
Wednesday, March 25, 2009
....खुश्बुओं का डेरा है।
हाँ, वही ज़ह्र का बसेरा है।
सच के क़स्बे का जो अँधेरा है,
झूठ के शहर का सवेरा है।
मैं सिकंदर हूँ एक वक़्फ़े का,
तू मुक़द्दर है वक्त तेरा है।
दूर होकर भी पास है कितना,
जिसकी पलकों में अश्क मेरा है।
जो तुझे तुझ से छीनने आया,
यार मेरा रक़ीब तेरा है।
मैं चमकता हूँ उसके चेहरे पर,
चाँद पर दाग़ का बसेरा है।
Tuesday, March 17, 2009
ख़्वाब कुछ बेहतरीन......
हौसले सब ज़मीन हो जाएँ ||
ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ,
सच अगर बदतरीन हो जाएँ |
ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ,
हम कहाँ तक महीन हो जाएँ |
ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं,
लोग जब भी मशीन हो जाएँ |
आपको आप ही उठाएँगे,
चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ |
Monday, March 2, 2009
---हम अपना अम्बर ढूँढ रहे हैं
ज़हरीली बस्ती में यारो, हम अमृतसर ढूँढ रहे हैं।
ख़ालिस उल्फ़त,प्यार- महब्बत, ख़्वाब यक़ीं के हैं आंखों में,
दिल हज़रत के भी क्या कहने ! बीता मंज़र ढूँढ रहे हैं।
सीख ही लेंगे साबुत रहना अपनी आग में जल कर भी हम,
दर्द को किसने देखा पहले तो अपना सर ढूँढ रहे हैं।
ऐंठे जाते-जाते ही तो ख़त्म हुआ है आँख का पानी'
अब जब शहर ने पीकर छोड़ा सब अपना घर ढूँढ रहे हैं।
अपनी-अपनी जिनकी ज़रूरत, अपनी उनकी कोशिश भी है,
झूठे, ख़ंजर ढूंढ़ रहे हैं , सच वाले , दर ढूँढ रहे हैं
क्या जाने ये वक़्त किसे कब क्या मंज़र दिखला देता है,
बावड़ियों को पीने वाले मिनरल वाटर ढूँढ रहे हैं।
याद तुम्हें जब करता हूँ तो समझाते हैं मुझको पर्वत,
‘सदियों से सब सह कर भी हम अपना अंबर ढूँढ रहे हैं’
Friday, February 6, 2009
तुम्हारे शहर की बस
ड्राइवर के माथे पर
पहुँचने की खुशी
थके हुए इंजन की आवाज
धूल से आंख मलते
खिड़कियों के शीशे
सबने यही कहा
दूर बहुत ही दूर है तुम्हारा शहर
यह बस देखती है
तुम्हारे शहर का सवेरा
मेरे गाँव की साँझ
सवाल पूछता है मन
क्या तुम्हारा शहर भी उदास होता है
जब कभी पहुँचती है
मेरे गाँव का सवेरा लेकर
तुम्हारे शहर की शाम में कोई बस
थकी-माँदी।
(भाई सतपाल ख़्याल के आग्रह पर यह कविता यहाँ प्रस्तुत की जा रही है। यह कविता यूँ भी नवनीत शर्मा की बेहतरीन कविताओं में एक है। कई वर्ष पहले लिखी यह कविता आज भी कितनी ताज़ा है, आप पढ़कर ख़ुद ही अंदाज़ा लगाईए : प्रकाश बादल)
Thursday, January 22, 2009
ऐसे ख़्याल और ऐसा शब्दकोष अगर किसी के पास हो तो फिर भला कोई किसी का कायल क्यों न हो। नवनीत भाई की ये ग़ज़ल ऐसा ही साबित कर रही है। वाह! नवनीत भाई वाह। ज़ाहिर हैं पाठक मेरे विचारों से सहमत (प्रकाश बादल)
चाय की दुकानें भी शराबों के लिए है
ग़ज़ल
ख्वाबों के लिए हैं न किताबों के लिए हैं
हम रोज-ए-अज़ल से ही अज़ाबों के लिए हैं
चलते भी रहें और मंज़िल नज़र आए
हम अपने ही अंदर के सराबों के लिए हैं
संसद में डटे लोग सवालों के लिए हैं
खेतों में जुटे लोग जवाबों के लिए हैं
बाज़ार ने तहज़ीब को निगला है कुछ ऐसे
चाय की दुकानें भी शराबों के लिए हैं
क्या जाने कहाँ कौन सी सूरत नज़र आए
इस दिल के कई चेहरे नकाबों के लिए हैं
खुशबू ही कहाँ ज़िक्र भी गुम हो गया तेरा
सब याद के पिंजर तो उकाबों के लिए हैं
अब आ गया रास हमको भी सन्नाटे में जीना
हम याद के वीरान खराबों के लिए हैं।
रोज़-ए-अज़ल : पहला दिन, अज़ाब : परेशानी, सराब : रेगिस्तान, खराब : खंडहर
Tuesday, January 13, 2009
ग़ज़ल
हौसले सब ज़मीन हो जाएँ।
ख़्वाब कुछ बेहतरीन हो जाएँ,
सच अगर बदतरीन हो जाएँ।
ना—नुकर की वो संकरी गलियाँ,
हम कहाँ तक महीन हो जाएँ।
ख़ुद से कटते हैं और मरते हैं,
लोग जब भी मशीन हो जाएँ।
आपको आप ही उठाएँगे,
चाहे वृश्चिक या मीन हो जाएँ।
Sunday, January 4, 2009
पिता जी - शब्दांजलि
घरों में बलगती छाती का होना
दीवारों का चौकस
छत का मजबूत होना है।
वही झेलती है
तीरों की धूप
कुरलाणियों की बरखा ।
दुख बस यही कि खिड़कियां
बहुत जल्द आसमान
हो जाना चाहती हैं।
2
वक्त की चोट से हिले हैं कब्जे
खिड़कियों के
खुली हवा का चाव पूरा हो गया
घर मगर कितना अधूरा हो गया
अब छत नहीं मिलती
शब्द जहां उतार देते थे रोगन
भाव भी
वह बिस्तर खाली है।
3
खूब लड़ी वह जेब
सरसों के तेल की धार से
कोयले की बोरी ले कर
लड़ते रहे वे हाथ
जाड़ों से ।
पिता सोए
बड़के की फीस के हिज्जे गुनते
मंझले की मंजिल पर
नींद में बुड़बुड़ाते
और सुबह से भी पहले जाग उठते
छोटा अभी बहुत ही छोटा है
बड़ा होगा न जाने कब
4
डायरियों पर आकृतियां बनाते हैं बच्चे
पहनते हैं दादा की ऐनक
जिससे दिखते थे
उर्दू के कुछ मीठे शब्द
बच्चों को आरता है चक्कर
शीशम के बने टेबल लैंप से खलते हैं जगाना-बुझाना
छुटकी के बस्ते में पड़े हैं चायनीज पैन के टुकड़े
अब रोकता नहीं कोई
अब टोकता नहीं कोई
5
पिता
उसकी जेब में पड़ी कलम
के कारण विनम्र हो गए हैं उसके शब्द
खत्म होने को डराते
चावल के पेड़ू ने कर दिया है उसे
सावधान
उदासियों में
बदहवासियों मेंवह सीख गया है बनना
अपना बाप
अपने आप
6
कितने ही साल से खामोश है
चिटिठयों पर
पुतने वाली गोंद
कोई नहीं पूछता
कविता का मिजाज
पिछवाड़े पड़ा बालन
उसकी खपचियां
भूल गई हैं ड्रिफ्टवुड से अपना रिश्ता
कोई नहीं कहता
हरियाली से बचना
फूल की तारीफ के बाद
नहीं रुकना फूल के पास
नहाते हुए लगाना नाभी पर तेल