************1****************
अंबर जब कविता लिखता है
हर तबका नहीं सुनता
जब कविता लिखता है अंबर
पर सुनती हैं कच्चे घरों की स्लेटपोश छतें
सर्द मौसम में अंबर की भीगी हुई कविता
और मिलाती हैं सुर/
सुनते हैं इसे
फुटपाथ पर कंबल में लिपटे जिस्म
दांत किटकिटाते
और कुछ ऐसा कहते हुए
जो भाषा के लायक नहीं होता
अजेय भाई के केलांग के किसी गांव में
जब बर्फ लिख रहा होता है अंबर
तो उसे सुन ही नहीं, जी रहा होता है
उड़ान के इंतजार में कोई मरीज
अंबर की कविता भी अंबर जैसी
खत्म होने पर भी रहता है असर।
एक असर यह भी
कि करते हैं दुआ कबायली
सर्दियों में सेब के पौधे में क्यों तबदील नहीं हो जाता आदमी
जिंदगी ही दें भरपूर 'चिलिंग आवर'
अंबर जब कविता लिखता है
मनाली बस की किसी सीट पर
कंबल ओढ़
जज्बों में डूबा रहता है कोई हनीमून कपल
सब सुनते हैं अंबर की कविता
सबका अपना है अनुभव
कोई अच्छी तो कोई बुरी कहता है
लेकिन एक तबका है ऐसा अभागा
जिस तक नहीं पहुंचती अंबर की कविता
उसकी
कारों के दरवाजे
कंकरीट की छतें
लैपटॉप की स्क्रीन
और एयरकंडीशंड कमरे
सब मिल कर उससे छीन लेते हैं
वही,
अंबर की कविता।
************2****************
जब तक रहेंगे पेड़
दाना चुगने में थकी चिडि़या
आती रहेगी
अपनी चोंच से छोटे-छोटे मुंहों में
जीवन धर कर लौटती रहेगी
परवाज पर
तने सहते रहेंगे चाकुओं से
उन पर उकेरे जाते प्रेमियों के नाम का दर्द
हवाओं के तेवरों के मुताबिक
चोटियां हिलती रहेंगी
हर मौसम में
शाखों पर आते रहेंगे फूल
शाम को लंबी सुनहरी अंगुलियों से
पेड़ों का सिर सहला कर
लौटती रहेगी धूप
बांधते रहेंगे कुछ लोग पेड़ों को धागे
सब कुछ करते रहेंगे पेड़
यह जानते हुए भी कि
उन्हें घूर रही हैं कुछ कुल्हाडि़यां
पेड़ जानता है सड़क को जब सीधे होना होता है
उसकी नजरें टेढ़ी हो जाती हैं
फिर भी सब कुछ करते रहेंगे
जब रहेंगे पेड़
मगर कौन बताए
कब तक रहेंगे पेड़
************3****************
ढूंढ़ना मुझे
ढूंढ़ना मुझे
बावड़ी के किनारे रखे पत्थरों के नीचे
पीपल को बांधी गई डोर से कुछ दूर
खिलते गेंदे की कली में
झरने से फूटते पानी के ठीक पीछे
या उस कांटेदार पौधे में जिसका दूध
हाथों-पैरों के मस्से ठीक करता है
ढूंढ़ना मुझे
पहाड़ी पर खड़े हो कर गाए
किसी गीत के बोल के अंतिम हिस्से में
मैं मिलूंगा तुम्हें
अधूरे छूटे किसी लोकगीत की संभावना में
जंतर मंतर पर भी रहूंगा मैं
उन गुहारों में जो कुछ बदलना चाहती हैं
मुझे पाना उन चीखों में
जो बहुत बार अनसुनी रह जाती हैं
किसी संकरे पुल पर
पार से किसी के इंतजार में
शांत बैठा दिख सकूंगा मैं
जरूरी हो तो मुझे खोजना
पहाड़ काटने में मसरूफ
किसी जेसीबी के ब्लेड को टेढ़ा कर चुके पत्थर में
जो इस बार नहीं है कहीं
बस उसी सबके आसपास देखना मुझे।
अंबर जब कविता लिखता है
हर तबका नहीं सुनता
जब कविता लिखता है अंबर
पर सुनती हैं कच्चे घरों की स्लेटपोश छतें
सर्द मौसम में अंबर की भीगी हुई कविता
और मिलाती हैं सुर/
सुनते हैं इसे
फुटपाथ पर कंबल में लिपटे जिस्म
दांत किटकिटाते
और कुछ ऐसा कहते हुए
जो भाषा के लायक नहीं होता
अजेय भाई के केलांग के किसी गांव में
जब बर्फ लिख रहा होता है अंबर
तो उसे सुन ही नहीं, जी रहा होता है
उड़ान के इंतजार में कोई मरीज
अंबर की कविता भी अंबर जैसी
खत्म होने पर भी रहता है असर।
एक असर यह भी
कि करते हैं दुआ कबायली
सर्दियों में सेब के पौधे में क्यों तबदील नहीं हो जाता आदमी
जिंदगी ही दें भरपूर 'चिलिंग आवर'
अंबर जब कविता लिखता है
मनाली बस की किसी सीट पर
कंबल ओढ़
जज्बों में डूबा रहता है कोई हनीमून कपल
सब सुनते हैं अंबर की कविता
सबका अपना है अनुभव
कोई अच्छी तो कोई बुरी कहता है
लेकिन एक तबका है ऐसा अभागा
जिस तक नहीं पहुंचती अंबर की कविता
उसकी
कारों के दरवाजे
कंकरीट की छतें
लैपटॉप की स्क्रीन
और एयरकंडीशंड कमरे
सब मिल कर उससे छीन लेते हैं
वही,
अंबर की कविता।
************2****************
जब तक रहेंगे पेड़
दाना चुगने में थकी चिडि़या
आती रहेगी
अपनी चोंच से छोटे-छोटे मुंहों में
जीवन धर कर लौटती रहेगी
परवाज पर
तने सहते रहेंगे चाकुओं से
उन पर उकेरे जाते प्रेमियों के नाम का दर्द
हवाओं के तेवरों के मुताबिक
चोटियां हिलती रहेंगी
हर मौसम में
शाखों पर आते रहेंगे फूल
शाम को लंबी सुनहरी अंगुलियों से
पेड़ों का सिर सहला कर
लौटती रहेगी धूप
बांधते रहेंगे कुछ लोग पेड़ों को धागे
सब कुछ करते रहेंगे पेड़
यह जानते हुए भी कि
उन्हें घूर रही हैं कुछ कुल्हाडि़यां
पेड़ जानता है सड़क को जब सीधे होना होता है
उसकी नजरें टेढ़ी हो जाती हैं
फिर भी सब कुछ करते रहेंगे
जब रहेंगे पेड़
मगर कौन बताए
कब तक रहेंगे पेड़
************3****************
ढूंढ़ना मुझे
ढूंढ़ना मुझे
बावड़ी के किनारे रखे पत्थरों के नीचे
पीपल को बांधी गई डोर से कुछ दूर
खिलते गेंदे की कली में
झरने से फूटते पानी के ठीक पीछे
या उस कांटेदार पौधे में जिसका दूध
हाथों-पैरों के मस्से ठीक करता है
ढूंढ़ना मुझे
पहाड़ी पर खड़े हो कर गाए
किसी गीत के बोल के अंतिम हिस्से में
मैं मिलूंगा तुम्हें
अधूरे छूटे किसी लोकगीत की संभावना में
जंतर मंतर पर भी रहूंगा मैं
उन गुहारों में जो कुछ बदलना चाहती हैं
मुझे पाना उन चीखों में
जो बहुत बार अनसुनी रह जाती हैं
किसी संकरे पुल पर
पार से किसी के इंतजार में
शांत बैठा दिख सकूंगा मैं
जरूरी हो तो मुझे खोजना
पहाड़ काटने में मसरूफ
किसी जेसीबी के ब्लेड को टेढ़ा कर चुके पत्थर में
जो इस बार नहीं है कहीं
बस उसी सबके आसपास देखना मुझे।