पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के टांडा मैडिकल कॉलेज में 19 वर्षीय एमबीबीस करने आए छात्र अमनकाचरू को रैगिंग के दानव ने लील दिया उसी विचलित करने वाली दुर्घटना के बाद लिखी गई नवनीत भाई की यह कविता! |
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अमन काचरू |
राजधानी के अपराध आंकड़ों को छोड़
जब चला एक शांत कस्बे के लिए
निश्चिंत था मैं।
ठंडी हवाओं ने बताया
यहां सुकुन है,
यहां के लोगों में है कुछ ऐसा कि
देवता का जिक्र आता ही है।
यहां वातावरण में गूंजती है
इनसान को मौत के मुंह से खींच लाने की कसम
भगवान तैयार हो रहे हैं यहां
ग्रामीण चाय की दुकानों पर बतियाते हैं।
लेकिन धूपभरी एक दोपहर
मुझे बताया एक बरगद ने
कि यह जो बस्ती है
वहां दिन रात से उतना ही अलग है
जितनी रात होती है अलग दिन से ।
दिन में भयावह दिख़ने वाली खड्डें
रात को तब रहमदिल बिस्तर बन जाती हैं
जब यह भगवान बनाने वाली इमारत राक्षसों के अटहास से
गूंजने लगती है।
दिन के जितने हैं मासूम चेहरे
रात को उनके दो दांत बाहर आ जाते हैं
वे डराते हैं, धमकाते हैं,नोचते हैं और लूटते हैं
मुझे नहीं था यकीन
कि मां चामुंडा से मिल कर आती
बनेर खड़ड एक रात मेरा बिस्तर बन जाएगी
जब मैने देवताओं को राक्षस बनते देखा था।
मैंने मदद के लिए आवाज लगाई
पर किसी ने मेरे मुंह पर
प्राचार्य दफ्तर का पेपरवेट उठा कर दे मारा
मेरी जीभ छिल गई
मैं चुप हो गया।
मेरे बाजू अभी सलामत थे
मैने दूर देखा 'राघवन कमेटी' की सिफारिश
धौलाधार की चोटी पर चमक रही है
मैने हाथ बढ़ाया
लेकिन इससे पहले ही चार हंसते हुए चेहरों ने
उसे फाड़ कर फेंक दिया।
मैने सोए हुए चौकीदार को जगाया
लेकिन उसके खर्राटों ने बताया
मेरा वार्डन भी सोया हुआ है।
मैंने कागजों से कहा अपना दुख
आकृत्तियां बनाईं,
लिखा, उकेरा
सब कुछ कि मैं कितना बोझ उठाकर कर घिसट रहा हूं।
किसी ने मुझे नहीं देखा
कुछ वर्दियां चमकती रही
कुछ हूटर बजते रहे
जूनियरों के सिर मुंडते रहे
वे नमस्ते की मुद्रा में चलते रहे
कुछ लैब कोट खून से सनते रहे।
पर उस रात तो हद ही हो गई
उस रात मेरे सपने तोड़े गए
उस रात मेरा सिर फोड़ा गया
उस रात मुझे पूरे का पूरा तोड़ा गया
और अब मैं कहीं नहीं हूं।
तुम देखो कि
मैं अपने शहर में क्राइम का शिकार नहीं हुआ
मुझे दिल्ली की ब्लू लाइन ने नहीं रौंदा
मुझे गुड़गांव पुलिस ने फर्जी एनकाउंटर में नहीं सुलाया
यह जो घर तुम्हारा है
मुझे यहां हरियाली ने मारा है
सुनो,
तुम उधर मत जाना।
गांव में हल चला लेना
आटर्स पढ़ लेना
मां-बाप के सपने तोड़ देना
नालायक ही रह जाना
दुकानदारी चला लेना
कुछ भी करना पर
यूं मत मरना
यह मरना नहीं
मारा जाना है।
क्योकि मैं भी नहीं चाहता था मरना
यह सब मुझे अमन काचरू ने बताया
जब जाने के कई दिन बाद तक
वह मुझसे बतियाया।
8 comments:
aapne bhavuk kar diya dost,
bahut achhi rachna.....
badhai dil se
BAHOT HI MARMIK KAVITAA HAI,YE GHATANAA JITNI SHARMANAAK HAI UTNI HI NINDANIYA AUR BHYAWAH HAI....
ARSH
मन की हालत अजीब सी हो गयी कविता पढ़ कर...
कुछ और कहने की स्थिति में नहीं हूँ
अद्भुत मार्मिक अभिव्यक्ति..मन अनमना सा हो गया. फिर आते हैं.
नींद तो अमन कचरू वाला हादसा पहले ही उड़ा
गया था .
यह कविता कई-कई रातें जगाने वाली कविता है
कुछ कहने की स्थिति में छोड़ती ही नहीं.
मुझे फिर दुष्यंत की ग़ज़ल याद आ गई:
हालाते-जिस्म, सूरत-ए-जाँ और भी ख़राब
चारों तरफ ख़राब यहाँ
और भी ख़राब
नज़रों में आ रहे है नज़ारे बहुत बुरे
होंठों में आ रही है ज़बाँ और भी ख़राब
रौशन हुए चराग़ तो आँखें नहीं रहीं
अंधों को रौशनी
का गुमाँ और भी ख़राब
सोचा था उनके देश में मँहगी है ज़िन्दगी
पर ज़िन्दगी का भाव
व
हाँ और भी ख़राब
इस दुर्घटना के ज़िम्मेदार
तमाम कारणों / कारकों के लिये
तमाम लानतों के साथ
....
बहुत बहुत प्रभावशाली ढंग से पीडा और त्रासद स्थिति को उकेरा है आपने......मार्मिक रचना....
bahut hi marmik rachna hai. is tarah ke behave jane kab band honge ki log itne krur ho jaaye to koun samhalega
बड़ी भावपूर्ण रचना.....
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