मेरी नज़र में नवनीत शर्मा

अपने आस-पास, अपने माता-पिता, अपनी मिट्टी से गहरा लगाव, और उतना ही गहरा इस लगाव को अभिव्यक्त करने का हुनर है नवनीत शर्मा के पास। नवनीत का शिल्प अत्यंत प्रभावशाली है। नवनीत की कविताओं में जो धार है वही रवानगी इनकी ग़ज़लों में भी है। और कहने का अंदाज़ जैसा इनका है, किसी-किसी का होता है। मशहूर शायर साग़र ‘पालमपुरी’ के पुत्र होने के साथ- सुपरिचित ग़ज़लकार श्री द्विजेंद्र ‘द्विज’ के अनुज भी हैं नवनीत। इन दिनो नवनीत पत्रकारिता से जुड़े हैं लेकिन साहित्य से इनका लगाव आज भी बरकरार है। आपको नवनीत शर्मा की रचनाएं कैसी लगती हैं आप ज़रूर अपनी राय दें- प्रकाश बादल।

Wednesday, December 24, 2008

हरतरफ तू है

एक शेर की पंक्ति 'इंतज़ार और करो अगले जनम तक मेरा', को सुन कर कही गई नज़्म एक मुस्लसल नज़्म

जैसे सौदाई को बेवजह सुकूं मिलता है

मैं भटकता था बियाबान में साये की तरह

अपनी नाकामी-ए-ख्वासहिश पे पशेमां होकर

फर्ज़ के गांव में जज़्बात का मकां होकर

पर अचानक मुझे तुमने जो पुकारा तो लगा

कौन ईसा है जिसे मेरी दवा याद रही

वो मुझे छू ले, समझ ले वो मेरे पास आए

कांपते होंठों पे बस एक ही फरियाद रही


दिल की उधड़ी हुई सीवन को छूआ यूं तुमने

कुछ भी ताज़ा न था पर फिर भी कहा यूं तुमने

रूह की आंख ने कई लम्हाथ खुशी रोई है

तुमने अपनाई से छूकर जो टटोला है मुझे

बर्फ़ के शहर में कुछ आस के सूरज की तरह

बरस रहा हूं मुसलसल मैं खुद पे बादल सा

दिख रहा है तू फरिश्ता सा एक हंसता हुआ


मैंने आंखें में तेरी होने का सामां देखा

और चेहरे से तेरे होने की खुशबू पाई

मैंने जज़्बात में देखी है तेरी लौ जिसमें

मुझसी वीरां कोई वादी भी जगमगाई है

और मैं ज़ेहन की तारीकियों को यूं डपटूं

काहिली दूर हो अब मैं भी ज़रा सा हंस लूं

हटो उदासियों आंगन में बहार आई है

आज जज़्बात पे हावी है ये लम्हात का दर्द

ग़म के संदेशों का दुख, दिल के हालात का दर्द

अब तेरी याद भी आती है तो याद आने पे

दिल भड़क जाता है कुछ और भी समझाने पे

अब तेरी राह से रिश्ता नहीं कोई बाकी

नमी न कोई कर सके इसे कभी ठंडा

अब तेरी याद को आंखो में छुपा रखा है


हम नहीं ज़ख्म जो हर रोज दर्द सह जाएं

सोचता मैं भी हूं दफना दूं ये बोझल चेहरा

सिर उठाउं जो कि सजदे में झुका रहता है

लड़ें, लड़ें तो लड़ें पर ख़्यालात आता है

तू है खुद अपने मुकाबिल लड़े तो किससे लड़े

मेरे निशाने पे मैं हूं भिड़ूं तो किससे भिड़ूं

हर तरफ तू है मैं बचता भी हूं तो किससे बचूं


बुझा-बुझा सा ये दिल सुबह शाम करता है

सुस्तफ कदमों से कोई सूरज को दफ्न करता है

कोई हवा जो बहुत रहमदिल हो ये सुन ले

पहाड़ अब भी समंदर को याद करता है

इस जनम में तो है रिश्तार यही तेरा मेरा

इंतजार और करें अगले जनम तक आओ।






3 comments:

"अर्श" said...

बहोत ही बढ़िया लिखा है आपने ढेरो बधाई स्वीकारें ....

अर्श

Anonymous said...

waah bahut badhiya

Anonymous said...

नए साल में, नव-नूतन रंगों के बीच, लहराती शोख बेलों के तले आपका स्‍वागत. और ऐसे में प‍िता को याद करना अपने अलग अंदाज में, बहुत अच्‍छा.